शाम से तकिये पे है पड़ा,
ये ठरकी मन बावरा !
कमरे की रौशनी मद्धम करके,
सांसों के उलझते शोर में,
चादर की सिलवटे गिन रहा,
ये ठरकी मन बावरा !
उसे बोलो आए थोड़ी देर से,
खाव्हिशो को होने दे ज़रा धुआं,
लिपट के नाम से उसके बैठेगा तब तक,
ये ठरकी मन बावरा !
पिघलेगे दो जिस्म काली श्याही सी रात में,
और सुलगते हुए जिस्मो की आग में,
बूँद बूँद समेट लूंगी उसके प्यार को इस तरह,
बस कल नाराज़ न हो मुझसे...ये ठरकी मन बावरा !
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